सत्य की महिमा का उच्च स्वर में निनाद करने वाले धर्माचार्यों की संसार के किसी क्षेत्र में
किसी काल में कभी भी कमी नही रही l सत्य को सबसे बड़ा धर्म, सर्व प्रमुख कर्तव्य, सर्वश्रेष्ठ
जीवन तत्व और यहाँ तक कि साक्षात परमेश्वर ही कहा गया है l किन्तु समाज के लिए एक
जटिल समस्या सत्य के वास्तविक रूप को पहचानने की है l कठिनाई तो तब आती है जब दो
विरोधी शक्तियाँ पूरी ईमानदारी से परस्पर विरुद्ध तथ्यों को निर्विकल्प रूप से अबाधित सत्य
घोषित करती हैं l सत्य की साधारण परिभाषा है " जैसा जानो-वैसा कहो, जैस कहो-वैसा
करो"
l परन्तु क्या मनोवैज्ञानिक धरातल पर अपने ज्ञान की वास्तविकता को ठीक-ठीक
आंकना सम्भव भी है l क्या हमारे जानने और कहने पर भी इतने सामाजिक, नैतिक और
आचार सम्बन्धी अवगुंठन नहीं पड़े रहते कि उनमें से झांकता हुआ सत्य भी वस्तुत: अर्धसत्य
ही होता है l इस प्रकार पूर्णत: सच्चा व्यक्ति भी वस्तुत: मनोवैज्ञानिक रूप से सच्चा नहीं
होता, क्योंकि चेतन व् अचेतन का सत्य भी पृथक-पृथक होता है l मानव समाज तो चेतन के
सत्य को ही पूर्णतया नहीं पहचान पाता, अचेतन की बात कौन कहे l जनसामान्य के लिए
तो सबसे सुंदर सत्य का वह स्वरूप है " जिससे लोगों के सामने सच्चा बन कर रहा जा सके,
और अपना कार्य भी चल जाए l युधिष्ठर का "अश्व्थामा मारा गया ....हाथी हो या आदमी "
प्रथम वाक्य जोर से कहना और दूसरा वाक्य धीरे से और उसे भी नगाड़ों के शोर से दबा देना,
यही मानव समाज के लिए सरल और आकर्षक मार्ग है इसे ही "युधिष्ठ्री सत्य" कहा जाता है l
सोते जागते, चाहे-अनचाहे, सोचे या बिना सोचे मुंह से निकले वाक्य की लाज रखने के लिए
सर्वस्व गँवा देने वालों को दुनिया या तो देवता कहती है, या पागल l
यह तो हुई सत्य के उच्चस्तरीय तात्विक विवेचन की बात, लेकिन जब सत्य का सम्बन्ध सत्य
के परिणाम और वास्तविक उद्देश्य को दृष्टि-पथ में रख कर आंका जाता है तो सर्वथा विभिन्न
एवम विचित्र आयाम परिदृष्ट होते हैं l कभी-कभी तो मिथ्या को ही सत्य के सिंघासन पर
सुशोभित कर दिया जाता है और कभी सत्य को अवैध घोषित कर फांसी पर लटकादिया जाता
है
l जनसाधारण की दृष्टि में प्रसिद्ध उदाहरण है कि "यदि कोई गाय का हत्यारा गाय के प्रस्थान
मार्ग मार्ग को जानने वाले से पूछ बैठे कि गाय किधर गयी, तो गाय के हत्यारे को झूठ बोल कर
बहका देना, उसे पथ-भ्रष्ट कर देना पुण्य है l सत्य बोल कर गो हत्या के पाप में भागी बनना
घोर पाप और अनुचित आचरण है क्योंकि सत्य का परिणाम भयंकर है
l यहाँ बात यह भी
उठती है कि क्या सत्यवादी यह नहीं कह सकता कि गाय का रास्ता तो जानता हूँ मगर
बताऊंगा नहीं, किन्तु यह मूर्ख मार्ग होगा और इससे गाय कि रक्षा की सम्भावना भी कम है,
क्योंकि ऐसी स्थिति में वो किसी और से भी मार्ग पूछ सकता है l इसलिए राजनैतिक सत्य,
मिथ्या कथन में ही है l यह मिथ्या अलीक और असत्य वार्तालाप कभी-कभी सद उद्देश्य से
प्रदीप्त होने के कारण सत्य की अपेक्षा भी अधिक लोक कल्याणकारी एवम स्पृहनीय बन
जाता है l संस्कृत में एक बहुश्रुत सिद्धांत है:
"शिखा ते वर्धते वत्स, गुडूचीं पिब श्रद्धया"
अर्थात एक ज्वर ग्रस्त बालक को माता ने कहा "ऐ प्यारे पुत्र तू जो रोज़ अपनी चोटी बढ़ने की
चिंता करता है मैंने उसकी दवा खोज निकाली है, तू ये गिलोय का काढ़ा प्रेम से पी जा, तेरी
चोटी अवश्य बढ़ जायेगी l यहाँ स्थिति यह है कि वस्तुत: चोटी बढ़ने से गिलोय के काढ़े का कोई
सम्बन्ध नहीं
l वैज्ञानिक और आयुर्वेदिक दृष्टी से यह निरी मिथ्या कल्पना है, किन्तु माता की
भावना न केवल सत्य है बल्कि एक-मात्र शुभ, सुंदर और सत्य है l क्योंकि ज्वर ग्रस्त बालक
को खुशी-खुशी गिलोय का कडुवा काढ़ा पिलाने का अन्य कोई उपाय ही नहीं है l
जिसका
परिणाम ज्वर शान्ति के रूप में अवश्यम्भावी है, किन्तु अंतरकेवल इतना ही है कि माता की
रूचि है ज्वर उतारने में और बालक कि रुची है-- चोटी बढ़ाने में l
माता कर रही है कार्य
ज्वर उतारने का और कह रही है बात चोटी बढाने की l कौन कहेगा की माता अपराधिनी है?
उसने तो सत्य को असत्य की चाशनी में ढाल कर ग्रहणीय बना दिया है l और सत्य मानिए कि
सम्पूर्ण धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवहार में यह मिथ्याआकर्षण, सत्याकर्षण से
भी अधिक व्यापक, आकर्षक एवम पूर्ण प्रचारित है l इसके रहस्य को भेदने के लिए
प्रत्येक धार्मिक निष्ठा के कथ्य और कथन के अंतर का विश्लेषण करने से अत्यंत अदभुत
निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, जिनके दूरगामी प्रभाव या तो अत्यन्त कल्याणकारी होते हैं अथवा
अत्यन्त विनाशकारी l इस मिथ्याकर्षण के समर्थन में यह मनोवैज्ञानिक सामाजिक तथ्य
अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि बौधिक रूप से प्रबुद्ध व्यक्तियों का वर्ग सदैव अल्पसंख्यक रहता है
और "सत्य वचन महाराज" कहने वालों की भीड़ सदैव अपरिमित होती है l गिलोय के
वास्तविक गुण जानने वाले कम होते हैं और चोटी बढ़ाने की लालसा वाले अधिक l फिर
अशिक्षिक, अर्धशिक्षित, अल्पशिक्षित एवम श्रद्धा व् विश्वास के प्रतीक जनसामान्य को किसी
भी हितकारी नियम को व्याख्या सहित समझाना जितना दुर्गम, श्रमसाध्य एवं कालापेक्षी है,
मिथ्या से जोड़ कर दिशा निर्देश कर देना उतना ही सुविधा जनक है l यही कारण है कि प्राचीन
भारत में जितने समाज,राष्ट्र एवं मानव के लिए हितकारी नियम थे उन सबका परिणाम स्वर्ग
के रूप में आँका गया और सम्पूर्ण राष्ट्रीय, नैतिक और सामजिक अपराधों को नर्क का कारण
बता कर नकारा गया l और दो-चार सौ या हज़ार-दो हज़ार वर्षों की बात नहीं लाखों वर्षों तक
इस गिलोय के काढ़े से चोटी बढ़ाने नाम पर सामाजिक ज्वर का इलाज किया जाता रहा l इस
प्रकार यह मिथ्याकर्षण अपने आप में एक सामाजिक वरदान ही सिद्ध हुआ l
इस वरदान के साम्राज्य की पुन्यस्थली में झमेला तब उत्पन्न होता है जब कोइ चपल मन
जिज्ञासु बालक उस प्रछन्नमिथ्या सम्बन्ध को खोज निकालता है l तब उसे ज्वर उतरने की
चिन्ता नहीं रहती और केवल चोटी की चिन्ता में वह सूरदास के स्वर में पुकार उठता है:
"मैया मेरी कबहूँ बढ़ेगी चोटी ?
किती बार मोहे दूध पिवत भयो, यह अजहूँ है छोटी l
"
क्योंकि वह जान जाता है की दूध या गिलोय पिलाने से चोटियाँ नहीं बढ़ा करतीं l तनाव की ऐसी
स्थिति में जो वितृष्णा उसके मन में जन्म लेती है, वह दूध या गिलोय को ही नहीं, अपितु
अपनी वेगवती घृणा की भावधारा में दूध और गिलोय पिलाने वाले गुरुजनों को भी बहा ले
जाती है और जन्म लेती है, एक कठोर भौतिकता या नृशंस नास्तिकता जो या तो मानवता को
एक नवीन दिशा दिलाने का आधार बनती है अथवा विचित्र विध्वंस की भूमिका का आवाहन
करती है l इस से भी अधिक विचिकित्सा इस मिथ्याकर्षण मार्ग में यह है कि आदेश मानने
वाले के ठोस अज्ञान से पूर्ण आश्वस्त आदेश्दाता सत्य उद्देश्य के स्थान पर जब अपने स्वार्थों
को ले आता है, तब चोटी बढ़ने की बात तो वहीं रहती है गिलोय के स्थान पर भांग और संखिया
भी आ सकता है अथवा ज्वर का कोई कारण ही न हो, केवल चोटी बढ़ाने के चाव का अनुचित
लाभ उठातेहुए अपने निजी लाभ के लिए या गिलोय, भंग, संखिया, कुछ भी बेचने की दूकान
सजाने के लिए भी ये आदेश दुहराए जा सकते हैं l वस्तुत: भारत के अनेक प्रसिद्ध मत-
मतान्तरों के विशिष्ट धर्माचार्यों और मठाधीशों ने सस्ती गिलोय की दुकानें ही बार-बार खोलीं,
खुलवाईं, सजाईं और सजवाईं हैं और इस मिथ्याकर्षण से समाज की हानि ही अधिक
हुई है l
प्रश्न केवल यह है कि आखिर कब तक ................कब तक, सत्य के नाम पर इस
मिथ्याकर्षण का "धीमा जहर" (Slow
Poison) हम अपने जन सामन्य को बांटते रहेंगे
और "जहर खुरानी" (SLOW
POISIONING) को अपने जन-सामान्य के प्रति अर्पित
करते रहेंगे l क्या विज्ञान के क्षेत्र में प्रति-क्षण उन्नति करता हुआ समाज अभी तक भी इस
स्तर पर नहीं पहुँच पाया है कि बच्चों से कहा जा सके कि गिलोय पीने से तुम्हारा ज्वर उतर
जाएगा और चोटी तो प्रकृतिक नियम से स्वयं बढ़ेगी l ज्वर उतारना आवश्यक है, चोटी की
चिन्ता छोड़, और ज्वर की कड़वी औषधी पी ले l वैसे वस्तुस्थिति यह है कि चोटी बढ़ाने के
लिए माता से प्रार्थना करने वाले बालक आज के युग में शायद किसी आदिवासी बस्ती में तो
भले ही मिल जाएँ अन्यथा सम्भावना कम ही है l परन्तु प्रश्न चोटी, गिलोय, दूध, भांग, ज्वर
या संखिये का नहीं ये तो मात्र समझाने के लिए बीजगणित में प्रयोग किये जाने वाले
XYZ या
abc इत्यादि की तरह, अभिव्यक्ति के तौर पर प्रयोग किये गये हैं l वास्तविक प्रश्न
मिथ्याकर्षण को सत्याकर्षण के रूप में बदलने का है l और यह मिथ्याकर्षण केवल धर्म के क्षेत्र
में ही नहीं अपितु समाज, परिवार, साहित्य और राजनीती में भी अपना पूर्ण दबदबा कायम
किये हुए है, जिसकी सविवरण चर्चा करना अनुशासन पर्व की वेला में समीचीन नहीं l किन्तु
यह कहना अवश्य समीचीन होगा की सुशीघ्र ही ऐसा युग आ रहा है जब प्रत्येक क्षेत्र में
अस्पष्टवादिता अथवा मिथ्यावादिता का स्थान सत्यवादिता और स्पष्टवादिता को देना ही
होगा l